सोमवार, 11 मई 2009

मेरी माँ- संजू बिरट


संजू बिरट 12 वीं की छात्रा है। इसकी कविताएं बेहद भावपूर्ण होती हैं। इस कविता में एक श्रमशील मां की क्रियाशीलता बखूबी उजागर हुई है। - संपादक





मेरी माँ

लकड़ी, उपले और चूल्हे को
सूखा रखने के लिए

दौड़
रही है मेरी माँ
इस चक्कर में
भीग गई है
खुद
अन्दर तक।

चूल्हे को ढकने की मशक्कत में
कम पड़ गए हैं बर्तन
इसी बीच याद आई
पशुओं के ठाण में रखी
सड़ी-गली तू़डी
दौड़ती है माँ उसे निकालने को।

तभी टपकने लगता है
सरकण्डे की टूटी-फूटी
छत वाला एक मात्र कमरा
जिसमें बिल्कुल सिमटे हुए
बैठे हैं मेरे छह भाई-बहिन
और मेरे पिता
पर माँ लगी है
छत की मरम्मत में
बिना सीमेंट और कंकरीट के
मात्र बालू से ही कर रही
कोशिश हमारी सुरक्षा की।

तैर गए हैं बरतन
भीग गए हैं गुदड़े
याद आया माँ को
कोने में रखा थोड़ा-सा आटा
उतरती है जल्दी-जल्दी
इसी जल्दी में गिर पड़ती है माँ।

अपनी चोट भूलकर भी
याद है बच्चों का पेट
एक हाथ को बांधे
एक ही हाथ से
गूंथ रही है थोड़ा-सा आटा
तीन इंर्टों को खड़ा करके
बनाया है चूल्हा।

रोटी बनाते-बनाते खो गई
विचारों में
करने लगीं बातें खुद से ही
शायद कर रही है याद
कुछ और जो रह गया है बाहर
इसी बीच जलने लगी रोटी
हाथ से उतारने में जल गई अंगुली
क्योंकि चिमटा जो काफी दिनों से
कर रहा है काम चूल्हे की पाती का।

कम पड़ गई हैं रोटियां
टटोलती है माँ
अस्त-व्यस्त सामान के बीच
आटे की थैली
पर, बिल्कुल खाली है वह
करती है माँ समझौता खुद से ही
भूखी रह लूंगी आज तो क्या
और मैं देखती हूं-
हमारे अगले वक्त की रोटी के लिए
भूखे ही गुजरता है माँ का हर वक्त।

काँपते बच्चों और पति को
ठंड से बचाने में
माँ खुद बच जाती है कथरी ओढ़ने से
रात भर बैठी रहती है
दुबकी एक कोने में
क्योंकि दो खाटों पर तो
जैसे-तैसे पति और बच्चों को सुलाया है माँ ने।

यूं ही बीत जाती है रात
और फिर माँ की वही मशक्कत
ना बाहर की हालत सुधरती है
ना ही माँ की दिनचर्या
सोचती हूं, मुझे सूखा रखने में
कहाँ तक भीगी है माँ
मेरा पेट भरने के लिए
कितनी रातें करवटें बदलते काटी हैं माँ ने

क्या जिंदगी भर में भी हिसाब लगा पाऊंगी
माँ की चोटों का।

-संजू बिरट, परलीका (हनुमानगढ़) 335504

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