बडेरे हुए बुरज
बडेरे हुए बुरज
परलीका। विनोद स्वामी
समय के साथ हर चीज का रंग फीका पड़ जाता है। गांवों में आधुनिक सुविधाओं के पहुंचने के साथ ही पुरखों से विरासत में मिले बुरजों की कद्र अब घट गई है। खेतों में खड़े ये बुरज भी अब 'बडेरे' हो गए हैं। मरम्मत के अभाव में बरसात के साथ घुल-घुल कर पसरते जा रहे ये बुरज अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहे हैं, मगर आज भी इनकी उपयोगिता को कम करके नहीं आंका जा सकता।
आदिम युग में जब पहिए का आविष्कार नहीं हो पाया था और आदमी ने आग जलाना सीखा ही था, तभी शायद बुरज की कल्पना को आदमी ने मूर्तरूप दिया होगा। यह शायद गुफाओं व कंदराओं का विकसित रूप रहा हो। ज्यों-ज्यों मानव ने विकास किया घास-फूस की टापलियों व झोंपड़ियों ने गुफाओं की जगह ले ली। उसके बाद आदमी के रहने की सबसे उत्तम व्यवस्था संभवतया बुरज ही रही होगी। समय की धार के साथ ही कलाकारों ने इसे अलग-अलग रूपों, नामों व आकारों से सजाया-संवारा। किसी भी मंदिर, मस्जिद, मकबरे, गुरुद्वारे तथा गिरजाघर को गौर से देखा जाए तो उनमें बुरज जैसा कुछ अवश्य दिखाई पड़ता है। बुरज की यात्रा ने समय-समय पर करवट बदली, जिसका दर्शन मिश्र के पिरामिडों से लेकर राजा-महाराजाओं के महलों तक देखा जा सकता है।
कुछ वर्षों पूर्व तक खेतों में जो पिरामिडनुमा बुरज हर कहीं दिखाई दे जाते थे, वे अब कहीं-कहीं नजर आते हैं। बुरज बनाने की कला बहुत पहले ही दम तौड़ चुकी है, वहीं क्षेत्र के खेतों में खड़े इक्के-दुक्के बुरज भी अंतिम सांसें गिन रहे हैं। बुजुर्गों ने बताया कि आज से चार-पांच दशक पहले तक गांवों में बुरजों की अपनी विशेष अहमियत होती थी। बुरज को सम्पन्नता के साथ रुतबे व रौब का प्रतीक भी माना जाता था। विकास के साथ जैसे-जैसे सीमेंट व लोहे का प्रचलन आम हुआ गांवों से बुरज खत्म होते गए और आज गांव के किसी घर में बुरज होना पिछड़ेपन का कारण माना जाता है।
बुरज बनने के अपने कारण व खूबियां थी। उस समय मकानों की ओर लोगों का ध्यान कम था। छत में काम आने वाली लकड़ी की सामग्री दीमक खा जाती थी, जिससे बरसात के दौरान अनेक हादसों का सामना करना पड़ता था। बुरज बनाने में मात्र कच्ची ईंटें व गारा काम में लिया जाता था। लकड़ी इत्यादि की जरूरत न होने एवं इसकी बनावट अलग होने से यह बरसात, सर्दी व गर्मी हर ऋतु में मनुष्य का साथ देता था। न छत गिरने का डर, न दीमक का प्रकोप। सारे झंझटों से मुक्ति मिल जाती थी। बुरज को दूरगामी सोच का प्रतीक भी माना जाता था। ताजी हवा आने के लिए मोरियां रखी जाती थीं। आज भी खेतों में खड़े ये बुरज बरसात, आंधी-तूफान व सर्दी की रातों में भे़ड चराते भे़डपालकों का आसरा बनते हैं। जब आकाश में बादल होते हैं, काली-पीली आंधी उमड़ आती है, तो भे़डपालकों की नजरें इन बुरजों को ही तलाशती हैं। बुरजों के प्रति अब लोगों का आकर्षण घट जरूर गया है, परन्तु इनकी उपयोगिता को कम करके नहीं आंका जा सकता। ये बुरज एक ओर जहां खेतों की सुंदरता को चार चांद लगाते हैं, वहीं अतीत की स्मृतियां भी ताजा करते हैं। अब जब आदमी कंकरीट के जंगलों में खो जाने की मानसिकता का गुलाम हो गया है, तब उसे मिट्टी से बने बुरज में माटी की महक कैसे आ सकती है?
समय के साथ हर चीज का रंग फीका पड़ जाता है। गांवों में आधुनिक सुविधाओं के पहुंचने के साथ ही पुरखों से विरासत में मिले बुरजों की कद्र अब घट गई है। खेतों में खड़े ये बुरज भी अब 'बडेरे' हो गए हैं। मरम्मत के अभाव में बरसात के साथ घुल-घुल कर पसरते जा रहे ये बुरज अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहे हैं, मगर आज भी इनकी उपयोगिता को कम करके नहीं आंका जा सकता।
आदिम युग में जब पहिए का आविष्कार नहीं हो पाया था और आदमी ने आग जलाना सीखा ही था, तभी शायद बुरज की कल्पना को आदमी ने मूर्तरूप दिया होगा। यह शायद गुफाओं व कंदराओं का विकसित रूप रहा हो। ज्यों-ज्यों मानव ने विकास किया घास-फूस की टापलियों व झोंपड़ियों ने गुफाओं की जगह ले ली। उसके बाद आदमी के रहने की सबसे उत्तम व्यवस्था संभवतया बुरज ही रही होगी। समय की धार के साथ ही कलाकारों ने इसे अलग-अलग रूपों, नामों व आकारों से सजाया-संवारा। किसी भी मंदिर, मस्जिद, मकबरे, गुरुद्वारे तथा गिरजाघर को गौर से देखा जाए तो उनमें बुरज जैसा कुछ अवश्य दिखाई पड़ता है। बुरज की यात्रा ने समय-समय पर करवट बदली, जिसका दर्शन मिश्र के पिरामिडों से लेकर राजा-महाराजाओं के महलों तक देखा जा सकता है।
कुछ वर्षों पूर्व तक खेतों में जो पिरामिडनुमा बुरज हर कहीं दिखाई दे जाते थे, वे अब कहीं-कहीं नजर आते हैं। बुरज बनाने की कला बहुत पहले ही दम तौड़ चुकी है, वहीं क्षेत्र के खेतों में खड़े इक्के-दुक्के बुरज भी अंतिम सांसें गिन रहे हैं। बुजुर्गों ने बताया कि आज से चार-पांच दशक पहले तक गांवों में बुरजों की अपनी विशेष अहमियत होती थी। बुरज को सम्पन्नता के साथ रुतबे व रौब का प्रतीक भी माना जाता था। विकास के साथ जैसे-जैसे सीमेंट व लोहे का प्रचलन आम हुआ गांवों से बुरज खत्म होते गए और आज गांव के किसी घर में बुरज होना पिछड़ेपन का कारण माना जाता है।
बुरज बनने के अपने कारण व खूबियां थी। उस समय मकानों की ओर लोगों का ध्यान कम था। छत में काम आने वाली लकड़ी की सामग्री दीमक खा जाती थी, जिससे बरसात के दौरान अनेक हादसों का सामना करना पड़ता था। बुरज बनाने में मात्र कच्ची ईंटें व गारा काम में लिया जाता था। लकड़ी इत्यादि की जरूरत न होने एवं इसकी बनावट अलग होने से यह बरसात, सर्दी व गर्मी हर ऋतु में मनुष्य का साथ देता था। न छत गिरने का डर, न दीमक का प्रकोप। सारे झंझटों से मुक्ति मिल जाती थी। बुरज को दूरगामी सोच का प्रतीक भी माना जाता था। ताजी हवा आने के लिए मोरियां रखी जाती थीं। आज भी खेतों में खड़े ये बुरज बरसात, आंधी-तूफान व सर्दी की रातों में भे़ड चराते भे़डपालकों का आसरा बनते हैं। जब आकाश में बादल होते हैं, काली-पीली आंधी उमड़ आती है, तो भे़डपालकों की नजरें इन बुरजों को ही तलाशती हैं। बुरजों के प्रति अब लोगों का आकर्षण घट जरूर गया है, परन्तु इनकी उपयोगिता को कम करके नहीं आंका जा सकता। ये बुरज एक ओर जहां खेतों की सुंदरता को चार चांद लगाते हैं, वहीं अतीत की स्मृतियां भी ताजा करते हैं। अब जब आदमी कंकरीट के जंगलों में खो जाने की मानसिकता का गुलाम हो गया है, तब उसे मिट्टी से बने बुरज में माटी की महक कैसे आ सकती है?
'बडेरा' स्थानीय भाषा में घर के सबसे वृद्ध व्यक्ति को कहा जाता है। यह 'पूर्वज' का भी पर्याय है।
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