नोहर में विश्वकवि हो गए धोळती मूर्ति!
टैगोर जयंती पर विशेष
नोहर में विश्वकवि हो गए धोळती मूर्ति!
नोहर में विश्वकवि हो गए धोळती मूर्ति!
राजस्थान भर में नोहर के अलावा शायद ही कोई ऐसा कस्बा हो जहां किसी कवि की स्मृति में बीच शहर कोई भव्य स्मारक बना हो। मगर कैसी विडम्बना है कि नोहर का आमजन इसे टैगोर के स्मारक के रूप में कम और धोळती मूर्ति के रूप में ज्यादा जानता है।
एक महान रचनाधर्मी, विश्ववंद्य संत, नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार, विश्वकवि, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का नोहर जैसे छोटे कस्बे में स्मारक होना यहां की जनता का अहोभाग्य ही कहा जा सकता है। मगर आमजन की तो क्या कहें शिक्षित समुदाय ने भी कभी इस स्मारक की सुध लेना मुनासिब नहीं समझा। यहां तक कि यह स्मारक कब व कैसे बना यह बताने वाला भी कस्बे में कोई नजर नहीं आता। हश्र तो यह है कि बढ़ती भीड़ की गाज भी गत वर्ष इस स्मारक पर पड़ी और इसे पहले से संकरा कर दिया गया।
नोहर रेलवे स्टेशन से दक्षिण दिशा में बाजार की ओर जाने वाले मुख्य मार्ग पर बना यह स्मारक गत वर्ष तक नोहर की शान था। इसका भव्य रूप देखते ही बनता था। वह भव्य रूप तो नहीं रहा मगर आज भी बाहर से आने वाले विद्वजन और कला-प्रेमी यहां एक महान कवि का स्मारक देखकर कस्बे के साहित्यिक लगाव पर भाव-विभोर हुए बिना नहीं रहते। गौरतलब यह भी है कि राजस्थान भर में नोहर के अलावा शायद ही कोई ऐसा कस्बा हो जहां किसी कवि की स्मृति में बीच शहर कोई भव्य स्मारक बना हो। मगर कैसी विडम्बना है कि नोहर का आमजन इसे टैगोर के स्मारक के रूप में कम और धोळती मूर्ति के रूप में ज्यादा जानता है।
एडवोकेट और नगरपालिका के पूर्व उपाध्यक्ष संतलाल तिवाड़ी को यह स्मारक कब बना यह तो ठीक-ठाक याद नहीं पर उनका मानना है कि करीब बत्तीस बरस पहले जब यहां रणजीतसिंह घटाला उपखंड-अधिकारी थे, तब उनके कार्यकाल में यह स्मारक नगरपालिका ने बनवाया था। उन्होंने स्वीकारा कि एक महान साहित्यकार के स्मारक की अनदेखी के पीछे हम शिक्षितों की उदासीनता ही प्रमुख कारण है तथा नगरपालिका को प्रतिवर्ष इनकी जयंती पर जलसा आयोजित करना चाहिए जिससे नई पीढ़ी को इनके जीवन-दर्शन से प्रेरणा मिल सके। 'नोहर का इतिहास' के सृजक इतिहासकार प्रहलाद दत्त पंडा को स्मारक का इतिहास तो मालूम नहीं पर वे यह चिंता जरूर व्यक्त करते हैं कि टैगोर के साहित्य को कस्बे में गंभीरता से पढ़ने वालों का अभाव रहा है। राजस्थान ललित कला अकादमी से पुरस्कृत चित्रकार महेन्द्रप्रताप शर्मा स्मारक की अनदेखी को नोहर का बड़ा दुर्भाग्य मानते हैं। वे कहते हैं कि स्थानीय रचनाधर्मियों का दायित्त्व बनता है कि विशिष्ट अवसरों पर टैगोर के चिंतन पर गोष्ठियां आयोजित करें। कुछ ऐसे ही विचार नोहर स्थित राजकीय महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. एम.डी. गोरा के हैं।
गौरतलब है कि परलीका गांव के रचनाकारों ने करीब पांच वर्ष पहले टैगोर जयंती के अवसर पर यहां आकर स्थानीय कवियों की एक कवि गोष्ठी जरूर आयोजित करवाई थी मगर वह परम्परा का रूप नहीं ले सकी। सवाल उठता है कि अपने रचनाकर्म के बल पर जिन महापुरूषों ने भारतीय दर्शन को नए आयाम दिए, क्या हम अपने व्यस्त जीवन के कुछ पल उनके लिए नहीं निकाल सकते?
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''बड़ा कवि राष्ट्र का गौरव होता है। किसी राष्ट्र के हिस्से में बहुत कम आते हैं बड़े कवि। टैगोर भारत के हिस्से में आने वाले बहुत बड़े कवि थे। विश्वकवि टैगोर को सन् 1913 में बांगला काव्यकृति 'गीतांजली' पर नोबेल पुरस्कार मिला था। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। साहित्य की नाटक, निबंध, कथा, आदि गद्य विधाओं के साथ-साथ चित्रकला और संगीत पर भी उनका समान अधिकार था। अनुभव व शिल्प के स्तर पर आज भी उनके जोड़ का साहित्यकार दुर्लभ है। मैं नमन करता हूं उस शख्सियत को जिसके मन में पहली बार इस कस्बे में विश्वकवि का स्मारक बनाने का यह विलक्षण विचार आया और तरस आता है ऐसे तथाकथित बौद्धिकों पर जो इतना ही नहीं जानते कि उनके चौराहे पर किस महान आत्मा की प्रतिमा है।''
-टैगोर के बंगला नाटक 'रक्त करबी' के राजस्थानी अनुवाद 'राती कणेर' के लिए वर्ष 2002 में साहित्य अकादेमी-नई दिल्ली से पुरस्कृत साहित्यकार रामस्वरूप किसान।
प्रस्तुति - सत्यनारायण सोनी
9602412124
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