मंगलवार, 29 दिसंबर 2009
शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009
बुधवार, 16 दिसंबर 2009
श्याम जांगिड़ को फोरेंसिक साइंस में जेआरएफ

मंगलवार, 24 नवंबर 2009
गुरुवार, 1 अक्टूबर 2009
जनकवि हरीश भादानी नहीं रहे

उनका पार्थिव शरीर लोगों के दर्शनार्थ आज दिन भर उनके आवास पर रखा जाएगा। उनकी इच्छा के अनुरूप अन्तिम संस्कार के स्थान पर उनकी पार्थिव देह को शनिवार को सरदार पटेल मेडिकल कॉलेज बीकानेर के छात्रों के अध्ययन के लिए सौंपी जाएगी।
जनकवि हरीश भादानी नहीं रहे. यह खबर हर इन्सान के लिए दुखदायी है. राजस्थानी भाषा मान्यता आन्दोलन को भी उनके न रहने से धक्का लगा है। वे मूल रूप से राजस्थानी रचनाकार थे.
उनकी राजस्थानी में प्रकाशित पुस्तकें--
बाथां में भूगोळ (कविताएं) धरती प्रकाशन, बीकानेर 1984
खण-खण उकळलया हूणिया (होरठा) जोधपुर ज.ले.स।
खोल किवाड़ा हूणिया, सिरजण हारा हूणिया (होरठा) राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति जयपुर।
तीड़ोराव (नाटक) राजस्थानी भाषा-साहित्य संस्कृति अकादमी, बीकानेर पहला संस्करण 1990 दूसरा 1998।
जिण हाथां आ रेत रचीजै (कविताएं) अंशु प्रकाशन, बीकानेर।
वे पहले ऐसे इन्सान थे जिन्होंने राजस्थानी को राजस्थान की पहली राजभाषा बनाये जाने की मांग की. बीकानेर के लोकमत कार्यालय में 1980 में राजस्थानी दूजी राजभाषा विषय पर वैचरिक गोष्टी के मुख्य अतिथि पद से बोलते हुए उन्होंने बड़े ही तीखे और गरम रुख से राजस्थानी को दूसरी नहीं पहली राजभाषा बनाने की पैरोकारी की.
राजस्थानी के लिए आजीवन संघर्षरत रहने वाले मायडभाषा के इस सच्चे और जुझारू सपूत को हमारी विनम्र श्रधान्जली।

हिन्दी में प्रकाशित पुस्तकें:
अधूरे गीत (हिन्दी-राजस्थानी) 1959 बीकानेर।
सपन की गली (हिन्दी गीत कविताएँ) 1961 कलकत्ता।
हँसिनी याद की (मुक्तक) सूर्य प्रकाशन मंदिर, बीकानेर 1963।
एक उजली नजर की सुई (गीत) वातायान प्रकाशन, बीकानेर 1966 (दूसरा संस्करण-पंचशीलप्रकाशन, जयपुर)
सुलगते पिण्ड (कविताएं) वातायान प्रकाशन, बीकानेर 1966
नश्टो मोह (लम्बी कविता) धरती प्रकाशन बीकानेर 1981
सन्नाटे के शिलाखंड पर (कविताएं) धरती प्रकाशन, बीकानेर1982।
एक अकेला सूरज खेले (कविताएं) धरती प्रकाशन, बीकानेर 1983 (दूसरा संस्करण-कलासनप्रकाशन, बीकानेर 2005)
रोटी नाम सत है (जनगीत) कलम प्रकाशन, कलकत्ता 1982।
सड़कवासी राम (कविताएं) धरती प्रकाशन, बीकानेर 1985।
आज की आंख का सिलसिला (कविताएं) कविता प्रकाशन,1985।
विस्मय के अंशी है (ईशोपनिषद व संस्कृत कविताओं का गीत रूपान्तर) धरती प्रकाशन, बीकानेर 1988ं
साथ चलें हम (काव्यनाटक) गाड़ोदिया प्रकाशन, बीकानेर 1992।
पितृकल्प (लम्बी कविता) वैभव प्रकाशन, दिल्ली 1991 (दूसरा संस्करण-कलासन प्रकाशन, बीकानेर 2005)
सयुजा सखाया (ईशोपनिषद, असवामीय सूत्र, अथर्वद, वनदेवी खंड की कविताओं का गीत रूपान्तर मदनलाल साह एजूकेशन सोसायटी, कलकत्ता 1998।
मैं मेरा अष्टावक्र (लम्बी कविता) कलासान प्रकाशन बीकानेर 1999
क्यों करें प्रार्थना (कविताएं) कवि प्रकाशन, बीकानेर 2006
आड़ी तानें-सीधी तानें (चयनित गीत) कवि प्रकाशन बीकानेर 2006
अखिर जिज्ञासा (गद्य) भारत ग्रन्थ निकेतन, बीकानेर २००७
भादानी की दो कवितायें
1.
बोलैनीं हेमाणी.....
जिण हाथां सूं
थें आ रेत रची है,
वां हाथां ई
म्हारै ऐड़ै उळझ्योड़ै उजाड़ में
कीं तो बीज देंवती!
थकी न थाकै
मांडै आखर,
ढाय-ढायती ई उगटावै
नूंवा अबोट,
कद सूं म्हारो
साव उघाड़ो औ तन
ईं माथै थूं
अ आ ई तो रेख देवती!
सांभ्या अतरा साज,
बिना साजिंदां
रागोळ्यां रंभावै,
वै गूंजां-अनुगूंजां
सूत्योड़ै अंतस नै जा झणकारै
सातूं नीं तो
एक सुरो
एकतारो ई तो थमा देंवती!
जिकै झरोखै
जा-जा झांकूं
दीखै सांप्रत नीलक
पण चारूं दिस
झलमल-झलमल
एकै सागै सात-सात रंग
इकरंगी कूंची ई
म्हारै मन तो फेर देंवती!
जिंयां घड़यो थें
विंयां घड़ीज्यो,
नीं आयो रच-रचणो
पण बूझण जोगो तो
राख्यो ई थें
भलै ई मत टीप
ओळियो म्हारो,
रै अणबोली
पण म्हारी रचणारी!
सैन-सैन में
इतरो ई समझादै-
कुण सै अणदीठै री बणी मारफत
राच्योड़ो राखै थूं
म्हारो जग ऐड़ो?
[‘जिण हाथां आ रेत रचीजै’ से ]
2.
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
ऐरावत पर इंदर बैठे
बांट रहे टोपियां
झोलिया फैलाये लोग
भूग रहे सोटियां
वायदों की चूसणी से
छाले पड़े जीभ पर
रसोई में लाव-लाव भैरवी बजत है
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बोले खाली पेट की
करोड़ क्रोड़ कूडियां
खाकी वरदी वाले भोपे
भरे हैं बंदूकियां
पाखंड के राज को
स्वाहा-स्वाहा होमदे
राज के बिधाता सुण तेरे ही निमत्त है
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
बाजरी के पिंड और
दाल की बैतरणी
थाली में परोसले
हथाली में परोसले
दाता जी के हाथ
मरोड़ कर परोसले
भूख के धरम राज यही तेरा ब्रत है
रोटी नाम सत है
खाए से मुगत है
[रोटी नाम सत है]
प्रस्तुति - सत्यनारायण सोनी.
रविवार, 20 सितंबर 2009
अनार हुए बीमार, किसान हताश
परलीका(हनुमानगढ़), 20 सितम्बर। क्षेत्र में अनारों के करीब बीस बाग अज्ञात रोग की चपेट में हैं। किसानों के अनुसार उनके बागों में पकने से पहले फल दागी हो कर फट रहे हैं। बागवानी विभाग के पास रोग की रोकथाम के कोई पुख्ता इंतजाम नहीं है। इससे यहां के किसान हताश हैं और बैंकों से निरंतर मिल रहे तकाजे उनके लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं। काश्तकार मुआवजे व कर्जा माफी की मांग को लेकर लामबद्ध हो रहे हैं। गौरतलब है कि क्षेत्र के फेफाना, रामगढ़, परलीका, रामसरा व जसाना इत्यादि गांवों के प्रगतिशील किसानों ने राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड व उद्यान विभाग-राजस्थान से अनुदान लेकर ये बाग लगाए थे। कुछ काश्तकारों तो अभी अनुदान का भी इंतजार है। खेतों में बड़े-बड़े वाटर-टैंक निर्माण सहित किसानों को कई तरह की शारीरिक, मानसिक और आर्थिक मशक्कत करनी पड़ी और करीब तीन साल की कड़ी मेहनत के बाद जब बाग में फल का वक्त आया तो उन्हें बेहद निराशा का सामना करना पड़ा है। परम्परागत खेती को तो नुकसान हुआ- जसाना के संतलाल सहारण ने बताया कि उनके 20 बीघा में बाग है। फल आ गया है मगर सारे अनार पहले दागी हो रहें हैं तथा बाद में बीच में से अपने आप फट रहे हैं। इससे उनकी पूरी फसल चौपट हो रही है। संबंधित विभाग को कई बार अवगत करवाया गया है मगर न तो यहां विभाग के लोगों ने आकर कोई सुझाव दिया है न ही उनके पास इस रोग की पुख्ता जानकारी है। ऊपर से किसानों को बैंकों की ओर से भी लगातार तंग किया जा रहा है। बागवानी से उनकी परम्परागत खेती को तो नुकसान हुआ ही है, बैंकों के कर्ज से भी वे बुरी तरह दब गए हैं। विभाग की बातों से विश्वास उठा- रामगढ़ के काश्तकार जोगेन्द्रसिंह वर्मा का आक्रोश है कि बागवानी विभाग ने उन्हें बड़े-बड़े सब्ज बाग दिखाए तो उनकी बड़ी-बड़ी बातों में आकर बाग लगाया, तीन वर्षों तक बच्चों की तरह पौधों का पालन-पोषण किया। अपने खेत में अन्य फसलें भी नहीं उगा पाया और अब बाग की हालत खस्ता हो जाने से उनकी आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई है। विशेषज्ञों की टीम तुरंत भेजने की मांग- फेफाना के बलवीर बिजारणिंया ने किसानों के ऋण माफ करने की मांग की है। उनका कहना है कि अनुदान समय पर मिलना चाहिए तथा रोग से शीघ्र निजात दिलाने के लिए विभाग को तुरंत विशेषज्ञों की टीम भेजनी चाहिए। किसानों का यह भी आरोप है कि बागवानी विभाग के पास भी न तो इस रोग की रोकथाम के पुख्ता इंतजाम हैं और न ही विभाग अभी रोग का निदान व उपचार बता पाया है। विभाग ने कभी 'विजिट' नहीं की- 32 जेएसएन के किसान शार्दूलसिंह सहारण की भी यही पीड़ है कि विभाग ने कभी यहां की 'विजिट' नहीं की है। किसान जसवंत सिंह चौधरी जसाना, संदीप मईया परलीका, हरिशचन्द्र गोदारा फेफाना, सरदार गुरदित्तासिंह रामसरा की भी कमोबेश यही पीड़ा है।
अधिकारियों के मुख से
''इस संबंध में राज्य सरकार को रिपोर्ट प्रेषित कर दी गई है। किसानों को हुए नुक्सान को लेकर विस्तृत जानकारी भेजी गई है। जहां तक मुआवजे की बात है। यह राज्य स्तर का मामला है। उम्मीद है सरकार कोई नीतिगत निर्णय लेगी।' -डॉ. रविकुमार एस, कलेक्टर हनुमानगढ़
''अनार का दागी होकर फटना क्रॉप मैनेजमेंट की कमी की वजह से होता है। इससे बचाव के लिए फरवरी-मार्च की फ्लावरिंग का ही फल लेना चाहिए। मई-जून में फ्लॉवरिंग के दौरान ज्यादा तापमान होने की वजह से फल दागी होकर फटता है। इन महीनों की फ्लावरिंग को पौधे से अलग कर देना चाहिए।' -डॉ. एस पी सिंह, उपनिदेशक, उद्यान विभाग, श्रीगंगानगर।
''किसानों की मांग के मध्यनजर जिला कलक्टर महोदय ने प्रमुख शासन सचिव एवं उद्यान विभाग को पत्र लिखकर इस समस्या से अवगत करवा दिया है। विभाग के पास अभी तक रोग का निदान और उपचार संभव नहीं हो पाया है। हम शीघ्र ही विशेषज्ञों की टीम अवलोकन के लिए भेज रहे हैं।'-जयनारायण बैनीवाल, सहायक निदेशक, उद्यान विभाग, हनुमानगढ़।
रिपोर्ट - अजय कुमार सोनी, परलीका (हनुमानगढ़) दूरभाष- 9269567088
बुधवार, 15 जुलाई 2009
सोमवार, 13 जुलाई 2009
माली हालत खस्ता फिर भी बीपीएल सूची से बाहर
हालत खस्ता फिर भी बीपीएल सूची से बाहर
वार्ड 9 के निवासी चंदूराम ने बताया कि 'मैं सत्तर साल गो होग्यो। म्हनै कोई भांत गी सरकारी इमदाद अब तक कोनी मिली। पैली तो कार कर लेंवतो पण अब आंख्यां सूं सूझणो बंद होग्यो। मेरै हाण गै बूढियां नै पैंशन मिलै पण म्हनै तो कोनी मिलै। ना मेरो नाम बीपीएल में जोड्यो। कोटा री कणक ई मिल जावै तो ठीक है, पण कोनी मिलै। मेरै च्यार बेटा है। तीन गाम सूं बारै कई बरसां सूं मजूरी करगे पेट भरै। कई बरसां सूं मेरो सबसूं छोटो बेटो मेरै सागै है। जिको गूंगो है। बीं री मजूरी सूं म्हारो पेट भरै। जे म्हनै पिलसण मिल ज्यावै अर बीपीएल में जोड़ देवै तो फोड़ा मिटज्या। मेरो घर ई पड़ण आळो होर्यो है। घरआळी विकलांग है। लीपा-चांकी कुण करै। छात अर भींत चौमासै में ऊपर ई पड़ सकै। पखानो कोनी। ना चालीजै ना दीखै, कठै जावां? जे सरकार कूई खुदाद्यै तो ठीक काम होज्या।'
शनिवार, 30 मई 2009
बडेरे हुए बुरज
समय के साथ हर चीज का रंग फीका पड़ जाता है। गांवों में आधुनिक सुविधाओं के पहुंचने के साथ ही पुरखों से विरासत में मिले बुरजों की कद्र अब घट गई है। खेतों में खड़े ये बुरज भी अब 'बडेरे' हो गए हैं। मरम्मत के अभाव में बरसात के साथ घुल-घुल कर पसरते जा रहे ये बुरज अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहे हैं, मगर आज भी इनकी उपयोगिता को कम करके नहीं आंका जा सकता।
आदिम युग में जब पहिए का आविष्कार नहीं हो पाया था और आदमी ने आग जलाना सीखा ही था, तभी शायद बुरज की कल्पना को आदमी ने मूर्तरूप दिया होगा। यह शायद गुफाओं व कंदराओं का विकसित रूप रहा हो। ज्यों-ज्यों मानव ने विकास किया घास-फूस की टापलियों व झोंपड़ियों ने गुफाओं की जगह ले ली। उसके बाद आदमी के रहने की सबसे उत्तम व्यवस्था संभवतया बुरज ही रही होगी। समय की धार के साथ ही कलाकारों ने इसे अलग-अलग रूपों, नामों व आकारों से सजाया-संवारा। किसी भी मंदिर, मस्जिद, मकबरे, गुरुद्वारे तथा गिरजाघर को गौर से देखा जाए तो उनमें बुरज जैसा कुछ अवश्य दिखाई पड़ता है। बुरज की यात्रा ने समय-समय पर करवट बदली, जिसका दर्शन मिश्र के पिरामिडों से लेकर राजा-महाराजाओं के महलों तक देखा जा सकता है।
कुछ वर्षों पूर्व तक खेतों में जो पिरामिडनुमा बुरज हर कहीं दिखाई दे जाते थे, वे अब कहीं-कहीं नजर आते हैं। बुरज बनाने की कला बहुत पहले ही दम तौड़ चुकी है, वहीं क्षेत्र के खेतों में खड़े इक्के-दुक्के बुरज भी अंतिम सांसें गिन रहे हैं। बुजुर्गों ने बताया कि आज से चार-पांच दशक पहले तक गांवों में बुरजों की अपनी विशेष अहमियत होती थी। बुरज को सम्पन्नता के साथ रुतबे व रौब का प्रतीक भी माना जाता था। विकास के साथ जैसे-जैसे सीमेंट व लोहे का प्रचलन आम हुआ गांवों से बुरज खत्म होते गए और आज गांव के किसी घर में बुरज होना पिछड़ेपन का कारण माना जाता है।
बुरज बनने के अपने कारण व खूबियां थी। उस समय मकानों की ओर लोगों का ध्यान कम था। छत में काम आने वाली लकड़ी की सामग्री दीमक खा जाती थी, जिससे बरसात के दौरान अनेक हादसों का सामना करना पड़ता था। बुरज बनाने में मात्र कच्ची ईंटें व गारा काम में लिया जाता था। लकड़ी इत्यादि की जरूरत न होने एवं इसकी बनावट अलग होने से यह बरसात, सर्दी व गर्मी हर ऋतु में मनुष्य का साथ देता था। न छत गिरने का डर, न दीमक का प्रकोप। सारे झंझटों से मुक्ति मिल जाती थी। बुरज को दूरगामी सोच का प्रतीक भी माना जाता था। ताजी हवा आने के लिए मोरियां रखी जाती थीं। आज भी खेतों में खड़े ये बुरज बरसात, आंधी-तूफान व सर्दी की रातों में भे़ड चराते भे़डपालकों का आसरा बनते हैं। जब आकाश में बादल होते हैं, काली-पीली आंधी उमड़ आती है, तो भे़डपालकों की नजरें इन बुरजों को ही तलाशती हैं। बुरजों के प्रति अब लोगों का आकर्षण घट जरूर गया है, परन्तु इनकी उपयोगिता को कम करके नहीं आंका जा सकता। ये बुरज एक ओर जहां खेतों की सुंदरता को चार चांद लगाते हैं, वहीं अतीत की स्मृतियां भी ताजा करते हैं। अब जब आदमी कंकरीट के जंगलों में खो जाने की मानसिकता का गुलाम हो गया है, तब उसे मिट्टी से बने बुरज में माटी की महक कैसे आ सकती है?
गुरुवार, 14 मई 2009
आपणा बडेरा (3)- प्रेमदास स्वामी
परलीका: प्रेमदास स्वामी

ढेरिया घुमाते हुए वे कहते हैं- 'म्हारै जमाने में ढेरियै गी चोखी चलबल ही। लुगाइयां चरखो अर माणस ढेरियो कातता। ढेरियै बिना मनै आवड़ै कोनी। बिलम गो बिलम अर काम गो काम। हाड चालै इतणै आदमी नै काम करणो चईयै। अब तो माचा अर पीढा फगत छोरियां नै दायजै में देवण खातर बणगे द्यूं। जमानो प्लास्टिक गो आग्यो। आपणी चीज्यां नै ओपरी चीज्यां खावण लागगी। बोरा तो गमईग्या। मेळै में गिंवारियै गी कुण सुणै। अब ढेरै गी बा तार कोनी रैयी।' वे बात का रुख मोड़ते हैं- 'खळा काढणा भोत दोरो काम हो। म्हीनै तांई पून कोनी चालती तो लियां ई बैठ्या रैंवता। ऊंटां पर नाज ढोणो दो'रो हो। आज मसीनां गै कारण खेती अर गाम-गमतरा करणां सोखा होग्या। पण...' ऐसा कहते-कहते प्रेमदास मानो दूर कहीं खो गए और चेहरे पर चिंता के भाव छा गए। बोले-'आदमी जमाने गै सागै कीं बेसी बदळग्यो। भाई-भाई खातर ज्यान देंवतो, पण आज हाथ-हाथ नै खावै। संपत अर प्रेम भाव तो जाबक ई कम होग्यो। ऊंट पर बोरो घाल चीणा बेचण जांवता, च्यार रिपिया मण गो भाव हो। संतोष हो। अब टराली भर-भर बेचै, पण सबर कोनी। कम मैणत में बखार भर जावै आ तो ठीक है, पण पाणी गी भांत रिपियो खर्च करद्यै, बीं गी कीमत कोनी मानै। आ बात आछी कोनी। आजकाल आळां खातर मैं कैवूं कै बै हराम गी खाण गी नीत ना राखै, मैणत, लगन अर प्रेम भाव सूं आपरो हीलो करै। मायतां गी बेकदरी भोत होगी। मायतां गी सेवा करसी बो ई सुखी रैसी।'
समुठ- 9829176391
सोमवार, 11 मई 2009
मेरी माँ- संजू बिरट
लकड़ी, उपले और चूल्हे को
सूखा रखने के लिए
दौड़ रही है मेरी माँ
इस चक्कर में भीग गई है
खुद अन्दर तक।
चूल्हे को ढकने की मशक्कत में
कम पड़ गए हैं बर्तन
इसी बीच याद आई
पशुओं के ठाण में रखी
सड़ी-गली तू़डी
दौड़ती है माँ उसे निकालने को।
तभी टपकने लगता है
सरकण्डे की टूटी-फूटी
छत वाला एक मात्र कमरा
जिसमें बिल्कुल सिमटे हुए
बैठे हैं मेरे छह भाई-बहिन
और मेरे पिता
पर माँ लगी है
छत की मरम्मत में
बिना सीमेंट और कंकरीट के
मात्र बालू से ही कर रही
कोशिश हमारी सुरक्षा की।
तैर गए हैं बरतन
भीग गए हैं गुदड़े
याद आया माँ को
कोने में रखा थोड़ा-सा आटा
उतरती है जल्दी-जल्दी
इसी जल्दी में गिर पड़ती है माँ।
अपनी चोट भूलकर भी
याद है बच्चों का पेट
एक हाथ को बांधे
एक ही हाथ से
गूंथ रही है थोड़ा-सा आटा
तीन इंर्टों को खड़ा करके
बनाया है चूल्हा।
रोटी बनाते-बनाते खो गई
विचारों में
करने लगीं बातें खुद से ही
शायद कर रही है याद
कुछ और जो रह गया है बाहर
इसी बीच जलने लगी रोटी
हाथ से उतारने में जल गई अंगुली
क्योंकि चिमटा जो काफी दिनों से
कर रहा है काम चूल्हे की पाती का।
कम पड़ गई हैं रोटियां
टटोलती है माँ
अस्त-व्यस्त सामान के बीच
आटे की थैली
पर, बिल्कुल खाली है वह
करती है माँ समझौता खुद से ही
भूखी रह लूंगी आज तो क्या
और मैं देखती हूं-
हमारे अगले वक्त की रोटी के लिए
भूखे ही गुजरता है माँ का हर वक्त।
काँपते बच्चों और पति को
ठंड से बचाने में
माँ खुद बच जाती है कथरी ओढ़ने से
रात भर बैठी रहती है
दुबकी एक कोने में
क्योंकि दो खाटों पर तो
जैसे-तैसे पति और बच्चों को सुलाया है माँ ने।
यूं ही बीत जाती है रात
और फिर माँ की वही मशक्कत
ना बाहर की हालत सुधरती है
ना ही माँ की दिनचर्या
सोचती हूं, मुझे सूखा रखने में
कहाँ तक भीगी है माँ
मेरा पेट भरने के लिए
कितनी रातें करवटें बदलते काटी हैं माँ ने
क्या जिंदगी भर में भी हिसाब लगा पाऊंगी
माँ की चोटों का।
शनिवार, 9 मई 2009
आपणा बडेरा- (2) हरलाल बैनीवाल
आपणा बडेरा
परलीका : हरलाल बैनीवाल
गिन्नाणी को अतिक्रमण से बचाया
आपणा बडेरा- (1) इमरती देवी
परलीका : इमरती देवी
सारो बास गांवतरो काढियांवतो
बुधवार, 6 मई 2009
नोहर में विश्वकवि हो गए धोळती मूर्ति!
नोहर में विश्वकवि हो गए धोळती मूर्ति!
राजस्थान भर में नोहर के अलावा शायद ही कोई ऐसा कस्बा हो जहां किसी कवि की स्मृति में बीच शहर कोई भव्य स्मारक बना हो। मगर कैसी विडम्बना है कि नोहर का आमजन इसे टैगोर के स्मारक के रूप में कम और धोळती मूर्ति के रूप में ज्यादा जानता है।
एक महान रचनाधर्मी, विश्ववंद्य संत, नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार, विश्वकवि, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का नोहर जैसे छोटे कस्बे में स्मारक होना यहां की जनता का अहोभाग्य ही कहा जा सकता है। मगर आमजन की तो क्या कहें शिक्षित समुदाय ने भी कभी इस स्मारक की सुध लेना मुनासिब नहीं समझा। यहां तक कि यह स्मारक कब व कैसे बना यह बताने वाला भी कस्बे में कोई नजर नहीं आता। हश्र तो यह है कि बढ़ती भीड़ की गाज भी गत वर्ष इस स्मारक पर पड़ी और इसे पहले से संकरा कर दिया गया।
नोहर रेलवे स्टेशन से दक्षिण दिशा में बाजार की ओर जाने वाले मुख्य मार्ग पर बना यह स्मारक गत वर्ष तक नोहर की शान था। इसका भव्य रूप देखते ही बनता था। वह भव्य रूप तो नहीं रहा मगर आज भी बाहर से आने वाले विद्वजन और कला-प्रेमी यहां एक महान कवि का स्मारक देखकर कस्बे के साहित्यिक लगाव पर भाव-विभोर हुए बिना नहीं रहते। गौरतलब यह भी है कि राजस्थान भर में नोहर के अलावा शायद ही कोई ऐसा कस्बा हो जहां किसी कवि की स्मृति में बीच शहर कोई भव्य स्मारक बना हो। मगर कैसी विडम्बना है कि नोहर का आमजन इसे टैगोर के स्मारक के रूप में कम और धोळती मूर्ति के रूप में ज्यादा जानता है।
एडवोकेट और नगरपालिका के पूर्व उपाध्यक्ष संतलाल तिवाड़ी को यह स्मारक कब बना यह तो ठीक-ठाक याद नहीं पर उनका मानना है कि करीब बत्तीस बरस पहले जब यहां रणजीतसिंह घटाला उपखंड-अधिकारी थे, तब उनके कार्यकाल में यह स्मारक नगरपालिका ने बनवाया था। उन्होंने स्वीकारा कि एक महान साहित्यकार के स्मारक की अनदेखी के पीछे हम शिक्षितों की उदासीनता ही प्रमुख कारण है तथा नगरपालिका को प्रतिवर्ष इनकी जयंती पर जलसा आयोजित करना चाहिए जिससे नई पीढ़ी को इनके जीवन-दर्शन से प्रेरणा मिल सके। 'नोहर का इतिहास' के सृजक इतिहासकार प्रहलाद दत्त पंडा को स्मारक का इतिहास तो मालूम नहीं पर वे यह चिंता जरूर व्यक्त करते हैं कि टैगोर के साहित्य को कस्बे में गंभीरता से पढ़ने वालों का अभाव रहा है। राजस्थान ललित कला अकादमी से पुरस्कृत चित्रकार महेन्द्रप्रताप शर्मा स्मारक की अनदेखी को नोहर का बड़ा दुर्भाग्य मानते हैं। वे कहते हैं कि स्थानीय रचनाधर्मियों का दायित्त्व बनता है कि विशिष्ट अवसरों पर टैगोर के चिंतन पर गोष्ठियां आयोजित करें। कुछ ऐसे ही विचार नोहर स्थित राजकीय महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. एम.डी. गोरा के हैं।
गौरतलब है कि परलीका गांव के रचनाकारों ने करीब पांच वर्ष पहले टैगोर जयंती के अवसर पर यहां आकर स्थानीय कवियों की एक कवि गोष्ठी जरूर आयोजित करवाई थी मगर वह परम्परा का रूप नहीं ले सकी। सवाल उठता है कि अपने रचनाकर्म के बल पर जिन महापुरूषों ने भारतीय दर्शन को नए आयाम दिए, क्या हम अपने व्यस्त जीवन के कुछ पल उनके लिए नहीं निकाल सकते?
----------------------------------------------------------------------------------------------------
''बड़ा कवि राष्ट्र का गौरव होता है। किसी राष्ट्र के हिस्से में बहुत कम आते हैं बड़े कवि। टैगोर भारत के हिस्से में आने वाले बहुत बड़े कवि थे। विश्वकवि टैगोर को सन् 1913 में बांगला काव्यकृति 'गीतांजली' पर नोबेल पुरस्कार मिला था। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। साहित्य की नाटक, निबंध, कथा, आदि गद्य विधाओं के साथ-साथ चित्रकला और संगीत पर भी उनका समान अधिकार था। अनुभव व शिल्प के स्तर पर आज भी उनके जोड़ का साहित्यकार दुर्लभ है। मैं नमन करता हूं उस शख्सियत को जिसके मन में पहली बार इस कस्बे में विश्वकवि का स्मारक बनाने का यह विलक्षण विचार आया और तरस आता है ऐसे तथाकथित बौद्धिकों पर जो इतना ही नहीं जानते कि उनके चौराहे पर किस महान आत्मा की प्रतिमा है।''
-टैगोर के बंगला नाटक 'रक्त करबी' के राजस्थानी अनुवाद 'राती कणेर' के लिए वर्ष 2002 में साहित्य अकादेमी-नई दिल्ली से पुरस्कृत साहित्यकार रामस्वरूप किसान।
सोमवार, 4 मई 2009
आं बच्चां रै सीस पर, बैठ्यो है संसार
एक कानी सकूलां में प्रवेश उच्छब मनायो जावे तो दूजी कानी नान्हा नान्हा पढ़ेसरयां नै घर चलावन री चिंता खाया जावे है. परलीका रो रामावतार स्वामी भी नोंवी जमात रो पढ़ेशरी है।

लुळ-लुळ जावै टांगड़ी, बो'ळो चकियौ भार।
आं बच्चां रै सीस पर, बैठ्यो है संसार।।
प्रस्तुति- अजय कुमार सोनी
संपादक जनवाणी
समुठ- 9460102521
सोमवार, 20 अप्रैल 2009
राजस्थानी रै मुद्दे पर खुल'र बोल्या मुख्यमंत्री
इणसूं पैलां क्षेत्रीय विधायक जयदीप डूडी, राजस्थानी मोट्यार परिषद रा हनुमानगढ़ जिला महामंत्री संदीप मईया, संरक्षक सतवीर स्वामी समेत मायड़भाषा आंदोलन सूं जुड़िया थका कई कार्यकर्त्ता मुख्यमंत्री सूं मिल्या अर राजस्थानी मान्यता री मांग रो ज्ञापन सूंपतां थकां इण मुद्दे माथै आपरो मत परगट करण री अरज कीनी।
गुरुवार, 2 अप्रैल 2009
मीठी-मुळक जबान,
आपणो प्यारो राजस्थान
18 एसपीडी गांव में चौधरी दौलताराम
संस्कृति अवार्ड उच्छब सम्पन्न
बेकळा रेत रै ऊंचै धोरै रै मंच सूं कविता पाठ करता कवि अर बेकळा में हाँसी सूं दोलड़ा होंवतां दरसक। ओ नजारो देखण नै मिल्यो मंगळवार रात नै पीळीबंगा तहसील रै 18 एसपीडी गांव में चौधरी दौलताराम संस्कृति अवार्ड उच्छब-2009 री वेळा एज्यूकेशन सिटी स्थळ माथै आयोजित 'हाँसी री गंगा' कार्यक्रम में।

चौधरी रावताराम मैमोरियल चैरिटेबल ट्रस्ट कानी सूं आयोजित इण कार्यक्रम रो श्रीगणेश गांव रा बडेरा गोपालराम सहारण मां सुरसत रै चितराम साम्हीं दीवो चास'र करियो। ट्रस्ट कानी सूं कवि ताऊ शेखावाटी, रामस्वरूप किसान अर रूपसिंह राजपुरी नै रिजाई अर सैनाणी भेंट कर'र सनमानित करीज्या। हास्य सम्राट ख्याली सहारण पधारियोड़ा पावणां अर दरसकां रो स्वागत-सत्कार करियो। इण मौकै ख्याली बतायो कै ट्रस्ट कानी सूं आगली साल पढेसरी अवार्ड भी सरू करीजसी, जिणमें हनुमानगढ़ जिलै रा पांचवीं, आठवीं, दसवीं अर बारहवी री परीक्षा में पैली ठोड़ रैवण वाळा पढेसर्यां नै अवार्ड दीरीजसी। ट्रस्ट हरेक बरस किसान मेळो भी आयोजित करसी।
कार्यक्रम री सरूआत कवि विनोद स्वामी चंद्रसिंह बिरकाळी रचित वाणी वंदना सूं करी। कवि रामदास बरवाळी रै गीत 'फूल झड़ै मायड़ रै सबदां, मीठी-मुळक जबान, आपणो प्यारो राजस्थान' पर स्रोता झूम उठ्या। रूपसिंह राजपुरी 'स्योलो ताऊ सूत्या हा तू़डी हाळी साळ में' समेत मोकळी कवितावां सूं दरसकां नै लोटपोट कर दिया। रामस्वरूप किसान आपरी हास्य कवितावां रै साथै कई गंभीर अर असरदार कवितावां सूं स्रोतावां नै भाव विभोर कर दिया। आपरी 'अन्नदाता' कविता में वां किसान रो दरद इण भांत परगट करियो- 'म्हैं तो मौत अर जीवण रै बिचाळै पीसीजण आळी चीज हूं, भुरभरी जमीं पर म्हारै हळ सूं काढयोड़ा ऊमरां में तो सदियां सूं करजो ऊगतो आयो है'। सवाईमाधोपुर सूं पधार्या राजस्थानी रा नांमी मंचीय कवि ताऊ शेखावाटी आज री राजनीतिक अर सामाजिक विद्रूपतावां पर चोट करती हास्य कवितावां सुणाई तो हाँसतां-हाँसतां सुणनियां रा पेट दूखण लागग्या। वां रै दुमदार दूहां पर स्रोतावां मोकळा ठरका लगाया। गंभीर कविता 'हेली' में कवि आपरी आत्मा सूं इण भांत बंतळ करी- 'हेली बावळी ए, गजबण तूं क्यूं मगज खपावै, दुनिया तो मेळो है ईं में एक आवै एक जावै'। मंच संचालक विनोद स्वामी आपरी कवितावां सूं आपरै बाळपणै नै चितार्यो। इण मौकै ख्याली ठेठ राजस्थानी में आपरी हास्य प्रस्तुतियां सूं स्रोतावां नै घणा हँसाया। कार्यक्रम मांय इलाकै रा मौकळा कवि-साहित्यकार, पत्रकार, राजस्थानी मान्यता आंदोलन सूं जु़ड्या कार्यकर्ता अर संस्कृति कर्मी मौजूद हा।
अनूठी पैल सारू घणा-घणा रंग
इण मौकै भास्कर संपादक कीर्ति राणा ख्याली नै इण अनूठी पैल सारू दाद दीनी। वां खुद नै मायड़भासा आंदोलन रो एक सिपाही बतायो अर पुरस्कृत संस्कृति कर्मियां नै बधाई दीनी। ख्याली समेत कार्यक्रम में हाजर मायड़भासा आंदोलन रा जुझारां भास्कर नै राजस्थानी भाषा रै प्रचार-प्रसार में जबरै सैयोग सारू मौकळो धन्यवाद दीनो।
सोमवार, 9 मार्च 2009
पीवण नै ई पाणी कोनीं





परलीका
९६०२४१२१२४