शनिवार, 30 मई 2009

बडेरे हुए बुरज

बडेरे हुए बुरज

बुरजों के प्रति लोगों का आकर्षण घट जरूर गया है, परन्तु इनकी उपयोगिता को कम करके नहीं आंका जा सकता।


परलीका। विनोद स्वामी
समय के साथ हर चीज का रंग फीका पड़ जाता है। गांवों में आधुनिक सुविधाओं के पहुंचने के साथ ही पुरखों से विरासत में मिले बुरजों की कद्र अब घट गई है। खेतों में खड़े ये बुरज भी अब 'बडेरे' हो गए हैं। मरम्मत के अभाव में बरसात के साथ घुल-घुल कर पसरते जा रहे ये बुरज अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहे हैं, मगर आज भी इनकी उपयोगिता को कम करके नहीं आंका जा सकता।
आदिम युग में जब पहिए का आविष्कार नहीं हो पाया था और आदमी ने आग जलाना सीखा ही था, तभी शायद बुरज की कल्पना को आदमी ने मूर्तरूप दिया होगा। यह शायद गुफाओं व कंदराओं का विकसित रूप रहा हो। ज्यों-ज्यों मानव ने विकास किया घास-फूस की टापलियों व झोंपड़ियों ने गुफाओं की जगह ले ली। उसके बाद आदमी के रहने की सबसे उत्तम व्यवस्था संभवतया बुरज ही रही होगी। समय की धार के साथ ही कलाकारों ने इसे अलग-अलग रूपों, नामों व आकारों से सजाया-संवारा। किसी भी मंदिर, मस्जिद, मकबरे, गुरुद्वारे तथा गिरजाघर को गौर से देखा जाए तो उनमें बुरज जैसा कुछ अवश्य दिखाई पड़ता है। बुरज की यात्रा ने समय-समय पर करवट बदली, जिसका दर्शन मिश्र के पिरामिडों से लेकर राजा-महाराजाओं के महलों तक देखा जा सकता है।
कुछ वर्षों पूर्व तक खेतों में जो पिरामिडनुमा बुरज हर कहीं दिखाई दे जाते थे, वे अब कहीं-कहीं नजर आते हैं। बुरज बनाने की कला बहुत पहले ही दम तौड़ चुकी है, वहीं क्षेत्र के खेतों में खड़े इक्के-दुक्के बुरज भी अंतिम सांसें गिन रहे हैं। बुजुर्गों ने बताया कि आज से चार-पांच दशक पहले तक गांवों में बुरजों की अपनी विशेष अहमियत होती थी। बुरज को सम्पन्नता के साथ रुतबे व रौब का प्रतीक भी माना जाता था। विकास के साथ जैसे-जैसे सीमेंट व लोहे का प्रचलन आम हुआ गांवों से बुरज खत्म होते गए और आज गांव के किसी घर में बुरज होना पिछड़ेपन का कारण माना जाता है।
बुरज बनने के अपने कारण व खूबियां थी। उस समय मकानों की ओर लोगों का ध्यान कम था। छत में काम आने वाली लकड़ी की सामग्री दीमक खा जाती थी, जिससे बरसात के दौरान अनेक हादसों का सामना करना पड़ता था। बुरज बनाने में मात्र कच्ची ईंटें व गारा काम में लिया जाता था। लकड़ी इत्यादि की जरूरत न होने एवं इसकी बनावट अलग होने से यह बरसात, सर्दी व गर्मी हर ऋतु में मनुष्य का साथ देता था। न छत गिरने का डर, न दीमक का प्रकोप। सारे झंझटों से मुक्ति मिल जाती थी। बुरज को दूरगामी सोच का प्रतीक भी माना जाता था। ताजी हवा आने के लिए मोरियां रखी जाती थीं। आज भी खेतों में खड़े ये बुरज बरसात, आंधी-तूफान व सर्दी की रातों में भे़ड चराते भे़डपालकों का आसरा बनते हैं। जब आकाश में बादल होते हैं, काली-पीली आंधी उमड़ आती है, तो भे़डपालकों की नजरें इन बुरजों को ही तलाशती हैं। बुरजों के प्रति अब लोगों का आकर्षण घट जरूर गया है, परन्तु इनकी उपयोगिता को कम करके नहीं आंका जा सकता। ये बुरज एक ओर जहां खेतों की सुंदरता को चार चांद लगाते हैं, वहीं अतीत की स्मृतियां भी ताजा करते हैं। अब जब आदमी कंकरीट के जंगलों में खो जाने की मानसिकता का गुलाम हो गया है, तब उसे मिट्टी से बने बुरज में माटी की महक कैसे आ सकती है?

'बडेरा' स्थानीय भाषा में घर के सबसे वृद्ध व्यक्ति को कहा जाता है। यह 'पूर्वज' का भी पर्याय है।

गुरुवार, 14 मई 2009

आपणा बडेरा (3)- प्रेमदास स्वामी

आपणा बडेरा
परलीका: प्रेमदास स्वामी

मायतां गी सेवा करसी बो ई सुखी रैसी

78 वर्षीय प्रेमदास स्वामी ने अपनी जिंदगी में न तो कभी अखबार पढ़ा, न रेडियो सुना। टेलीविजन तो आज भी उन्हें देवीय कृपा या मायाजाल-सा लगता है। उनको यह बात हैरान नहीं करती कि टी.वी. पर खबर क्या चल रही है, बल्कि उन्हें तो हैरत है कि जमाना कितना आगे निकल चुका है। पिछले चालीस सालों से लगातार सूत की कताई कर कलात्मक चारपाई, पीढ़े, रास, बोरा, जेवड़ा बनाने वाले इस बुजुर्ग को देखा तो जिज्ञासा हुई कि जमाने को इनकी नजर से देखा जाए। वे बताने लगे-'पैली अर अब में रात-दिन गो फरक आग्यो। जद कोसां उपाळो चालणो पड़तो, अब पांवडो ई धरण गो काम कोनी पड़ै। पाणी गा ई सांसां मिटग्या। दिनां तांईं न्हांवतां कोनी। अब सगळो गाम बीन बण्यो फिरै अर बारामासी गळियां में कादो कोनी सूकै। पै'ली नूंवां गाबा बरसां तक कोनी मिलता आज छोटै-छोटै टाबरां गै एक-एक लादो है। ब्याव में फगत एक जोड़ी धोती-कुड़तै सूं मैं भोत राजी हो। आज एक लादो कपड़ा हरेक आदमी गै होग्या। कारी-कुटका तो रैया ई कोनी। रिपियां सार पैली जाणता ई कोनी, पण अब तो जामतै टाबर नै ई रिपियै गो कोड। बीं बगत मन मांय एक न्यारो चाव-सो होंवतो। अब बा बात ई कोनी रैयी। आधी-आधी रात तांईं गुवाड़ां में कबड्डी खेलता। संपत हो। लड़ाई कोनी होंवती। मैं चाळीस साल तक खूब डांगर-ढोर चराया, सीरी रैयो, रात-दिन कमायो पण थकेलै गो नाम कोनी जाण्यो। अब तो पूछै जिको ई जेब सूं गोळी काढ गे होठ ढीला छोड़द्यै कै आंसग कोनी। तावळी-सी रीस ई कोनी आंवती। आजकाल फोन मांखर ई बात करतां सुणां जद लागै जाणै ईं रै माखर ई सामलै रै बटको बोडसी।
ढेरिया घुमाते हुए वे कहते हैं- 'म्हारै जमाने में ढेरियै गी चोखी चलबल ही। लुगाइयां चरखो अर माणस ढेरियो कातता। ढेरियै बिना मनै आवड़ै कोनी। बिलम गो बिलम अर काम गो काम। हाड चालै इतणै आदमी नै काम करणो चईयै। अब तो माचा अर पीढा फगत छोरियां नै दायजै में देवण खातर बणगे द्यूं। जमानो प्लास्टिक गो आग्यो। आपणी चीज्यां नै ओपरी चीज्यां खावण लागगी। बोरा तो गमईग्या। मेळै में गिंवारियै गी कुण सुणै। अब ढेरै गी बा तार कोनी रैयी।' वे बात का रुख मोड़ते हैं- 'खळा काढणा भोत दोरो काम हो। म्हीनै तांई पून कोनी चालती तो लियां ई बैठ्या रैंवता। ऊंटां पर नाज ढोणो दो'रो हो। आज मसीनां गै कारण खेती अर गाम-गमतरा करणां सोखा होग्या। पण...' ऐसा कहते-कहते प्रेमदास मानो दूर कहीं खो गए और चेहरे पर चिंता के भाव छा गए। बोले-'आदमी जमाने गै सागै कीं बेसी बदळग्यो। भाई-भाई खातर ज्यान देंवतो, पण आज हाथ-हाथ नै खावै। संपत अर प्रेम भाव तो जाबक ई कम होग्यो। ऊंट पर बोरो घाल चीणा बेचण जांवता, च्यार रिपिया मण गो भाव हो। संतोष हो। अब टराली भर-भर बेचै, पण सबर कोनी। कम मैणत में बखार भर जावै आ तो ठीक है, पण पाणी गी भांत रिपियो खर्च करद्यै, बीं गी कीमत कोनी मानै। आ बात आछी कोनी। आजकाल आळां खातर मैं कैवूं कै बै हराम गी खाण गी नीत ना राखै, मैणत, लगन अर प्रेम भाव सूं आपरो हीलो करै। मायतां गी बेकदरी भोत होगी। मायतां गी सेवा करसी बो ई सुखी रैसी।'
प्रस्तुति- विनोद स्वामी
समुठ- 9829176391

सोमवार, 11 मई 2009

मेरी माँ- संजू बिरट


संजू बिरट 12 वीं की छात्रा है। इसकी कविताएं बेहद भावपूर्ण होती हैं। इस कविता में एक श्रमशील मां की क्रियाशीलता बखूबी उजागर हुई है। - संपादक





मेरी माँ

लकड़ी, उपले और चूल्हे को
सूखा रखने के लिए

दौड़
रही है मेरी माँ
इस चक्कर में
भीग गई है
खुद
अन्दर तक।

चूल्हे को ढकने की मशक्कत में
कम पड़ गए हैं बर्तन
इसी बीच याद आई
पशुओं के ठाण में रखी
सड़ी-गली तू़डी
दौड़ती है माँ उसे निकालने को।

तभी टपकने लगता है
सरकण्डे की टूटी-फूटी
छत वाला एक मात्र कमरा
जिसमें बिल्कुल सिमटे हुए
बैठे हैं मेरे छह भाई-बहिन
और मेरे पिता
पर माँ लगी है
छत की मरम्मत में
बिना सीमेंट और कंकरीट के
मात्र बालू से ही कर रही
कोशिश हमारी सुरक्षा की।

तैर गए हैं बरतन
भीग गए हैं गुदड़े
याद आया माँ को
कोने में रखा थोड़ा-सा आटा
उतरती है जल्दी-जल्दी
इसी जल्दी में गिर पड़ती है माँ।

अपनी चोट भूलकर भी
याद है बच्चों का पेट
एक हाथ को बांधे
एक ही हाथ से
गूंथ रही है थोड़ा-सा आटा
तीन इंर्टों को खड़ा करके
बनाया है चूल्हा।

रोटी बनाते-बनाते खो गई
विचारों में
करने लगीं बातें खुद से ही
शायद कर रही है याद
कुछ और जो रह गया है बाहर
इसी बीच जलने लगी रोटी
हाथ से उतारने में जल गई अंगुली
क्योंकि चिमटा जो काफी दिनों से
कर रहा है काम चूल्हे की पाती का।

कम पड़ गई हैं रोटियां
टटोलती है माँ
अस्त-व्यस्त सामान के बीच
आटे की थैली
पर, बिल्कुल खाली है वह
करती है माँ समझौता खुद से ही
भूखी रह लूंगी आज तो क्या
और मैं देखती हूं-
हमारे अगले वक्त की रोटी के लिए
भूखे ही गुजरता है माँ का हर वक्त।

काँपते बच्चों और पति को
ठंड से बचाने में
माँ खुद बच जाती है कथरी ओढ़ने से
रात भर बैठी रहती है
दुबकी एक कोने में
क्योंकि दो खाटों पर तो
जैसे-तैसे पति और बच्चों को सुलाया है माँ ने।

यूं ही बीत जाती है रात
और फिर माँ की वही मशक्कत
ना बाहर की हालत सुधरती है
ना ही माँ की दिनचर्या
सोचती हूं, मुझे सूखा रखने में
कहाँ तक भीगी है माँ
मेरा पेट भरने के लिए
कितनी रातें करवटें बदलते काटी हैं माँ ने

क्या जिंदगी भर में भी हिसाब लगा पाऊंगी
माँ की चोटों का।

-संजू बिरट, परलीका (हनुमानगढ़) 335504

शनिवार, 9 मई 2009

आपणा बडेरा- (2) हरलाल बैनीवाल

आपणा बडेरा
परलीका : हरलाल बैनीवाल

बीस हजार खर्च कर

गिन्नाणी को अतिक्रमण से बचाया


हरलाल बैनीवाल की उम्र 75 बरस है। गांव की चौपाल पर अकसर उन्हें विश्व की राजनीतिक व आर्थिक हलचलों की गंभीर चर्चाओं में मशगूल देखा जा सकता है। उस जमाने में संगरिया के ग्रामोत्थान विद्यापीठ से दसवीं पास कर चुके हरलाल हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला के सहपाठी रह चुके हैं। सार्वजनिक सभाओं में धड़ले से और खासकर मायड़भाषा राजस्थानी में धाराप्रवाह भाषण देने के कारण भी इलाके में उनकी खास पहचान है। वे बताते हैं- 'तब गांवों में पढ़ाई के प्रति रुझान कम था। आज का बी.ए. उस जमाने के तीसरी पास की होड़ नहीं कर सकता। क्योंकि उस समय शिक्षा का मतलब कुंजी पढ़कर डिग्री लेना नहीं था। व्यवहारिक ज्ञान होता था। आज की शिक्षा केवल अक्षर ज्ञान है, जबकि हमारे जमाने में इसके मायने भिन्न थे। आज का पढ़ा-लिखा युवक घोर अर्थवादी है, तब उसे सामाजिक होना जरूरी था। आजादी आंदोलन का इतिहास है कि युवकों ने अपनी पढ़ाई छोड़कर सब कुछ वतन पर लुटा दिया। आज रिश्वत देकर नौकरी लगने का फैशन है। उस जमाने के नेता बड़े ईमानदार होते थे। फगत चने के साथ गु़ड खाकर चुनाव का प्रचार करते थे। आज नेता ही देश के दुश्मन हो गये हैं। ईमानदारी के बिना ये देश बिना लगाम का बैल हो गया है। ईमानदारी के लिए पहला प्रयोग अपने पर करना पड़ता है। मैंने गांव की गिन्नाणी पर हुए अतिक्रमण के खिलाफ पांच साल मुकदमा लड़ा। बीस हजार रुपए अपनी जेब से खर्च किए और गिन्नाणी को अतिक्रमण की चपेट से बचाया। सच्चाई के लिए आदमी को अपना सब कुछ होमना पड़ता है। युवकों को संदेश है कि नशे से दूर रहकर विश्व साहित्य का अध्ययन करें। पढ़ाई का पहला मकसद यही होना चाहिए कि शिक्षित होने का लाभ देश-दुनिया को मिले।' रेडियो के नियमित श्रोता और खासकर बीबीसी का हर बुलेटिन सुनने वाले हरलाल का मानना है कि टेलीविजन व सिनेमा अश्लील हो गए हैं, इन्हें बंद करना ही देश-हित में रहेगा।
प्रस्तुति- विनोद स्वामी

आपणा बडेरा- (1) इमरती देवी

आपणा बडेरा
परलीका : इमरती देवी

एक जणैं गी जूतियां सूं

सारो बास गांवतरो काढियांवतो


99 वर्षीय इमरती देवी का जन्म घेऊ में और शादी परलीका के चंद्रभाण बैनीवाळ से हुई। अपनी पांचवी पीढ़ी को पालने में लोरी सुनाकर सुलाती हुई पुरानी यादों को ताजा करती हैं और मुस्कराकर कहती हैं-'जमानो ना पैली माड़ो हो अर ना अब। बस बगत-बगत गी बात होवै। बीं जमानैगी कई बातां भोत आछी ही तो ईं जमानै गी भी होड कोनी होवै। जद लुगाइयां हाळी आगै सू़ड करती। खेत गो सगळो काम साम गे घर गो काम ई करती, पण थकेलै सार को जाणती नीं। देसी खाणो हो अर देसी ई रहन-सहन।' उन्होंने अपनी पुरानी चश्मा को साफ करते हुए मानो बरसों पीछे झांका तो जूनी बातें निर्मल झरने की तरह बहने लगीं। 'लुगाइयां भातो ले जांवती तो बीं भातै आळै ठाम में टाबर नै ई सुवा गे ले ज्यांवती। खेत में खोड़स्यो करती अर पछै घरे आ गे कूवां गो पाणी न्यारो ल्यांवती। खाण-पीण में लुगाइयां सागै दुभांत चालती, फेर ई लुगाइयां नै काम गो कोड रैंवतो। घणकरी सासुवां गो सुभाव खरो होंवतो। समाज में बां ई लुगाइयां गी कदर ही जकी खोड़स्यो करती अर काण-कायदै सूं रैंवती। लुगाइयां गी जबान गै ताळो हो। गु़ड-मीठो भी ताळै भीतर रैंवतो। पैलड़ो टेम तो चोखो हो ही। पाणी गा फोड़ा तो हा। बिजळी सार जाणता ई कोनी। आणजाण नै ऊंट हा। हारी-बीमारी गो देसी इलाज ई चालतो। मेळजोळ ई असली धन हो। पीसै सूं जादा आदमी गी बात गो मोल हो। आजकाल तो जमीन-जायदाद गै नाम पर भाई-भाई गो बैरी बण ज्यावै। मेरै कोई सागी भाई कोनी हो तो जमीन-जायदाद सगळी ताऊ गै बेटै भाई गै नाम करदी। बांट-बांट गे अर सागै बैठ गे खाण गो रिवाज हो। सुख-दुख गा सगळा सीरी हा। एक जणैं गी जूतियां सूं सारो बास गांवतरो काढियांवतो। जको आदमी बडेरां गो कैणो कोनी मानतो बीं गी इज्जत ई कोनी ही। कू़डा-कपटी मिनखां नै सगळा ई टोकता। पढ़ाई-लिखाई कम ही अर अंधविसवास घणा। छोटी-छोटी हारी-बीमारी खातर झाड़ा, डोरा-डांडा अर टूणां-टसमण गो स्हारो लेंवता। बीं जमानै में चा तो कोई-कोई घर में ई बणती। ल्हासी-राबड़ी अर दूध गी मनवारां ही। चा तो हारी-बीमारी में दवाई गी जिग्यां बरतीजती।' आज की पीढ़ी को संदेश के नाम पर उन्होंने कहा, 'प्रेम भाव सूं रैणो आछो होवै, रिपिया तो आदमी गै हाथ गो मैल होवै। पण आदमी गी इज्जत सैं सूं मोटी होवै। जठै इज्जत अर प्रेम होवै बीं जिंग्यां सारी चीज आवै।'
प्रस्तुति- विनोद स्वामी, परलीका

बुधवार, 6 मई 2009

नोहर में विश्वकवि हो गए धोळती मूर्ति!

टैगोर जयंती पर विशेष

नोहर में विश्वकवि हो गए धोळती मूर्ति!

राजस्थान भर में नोहर के अलावा शायद ही कोई ऐसा कस्बा हो जहां किसी कवि की स्मृति में बीच शहर कोई भव्य स्मारक बना हो। मगर कैसी विडम्बना है कि नोहर का आमजन इसे टैगोर के स्मारक के रूप में कम और धोळती मूर्ति के रूप में ज्यादा जानता है।

महान रचनाधर्मी, विश्ववंद्य संत, नोबेल पुरस्कार विजेता साहित्यकार, विश्वकवि, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का नोहर जैसे छोटे कस्बे में स्मारक होना यहां की जनता का अहोभाग्य ही कहा जा सकता है। मगर आमजन की तो क्या कहें शिक्षित समुदाय ने भी कभी इस स्मारक की सुध लेना मुनासिब नहीं समझा। यहां तक कि यह स्मारक कब व कैसे बना यह बताने वाला भी कस्बे में कोई नजर नहीं आता। हश्र तो यह है कि बढ़ती भीड़ की गाज भी गत वर्ष इस स्मारक पर पड़ी और इसे पहले से संकरा कर दिया गया।

. दो वर्ष पहले टैगोर का भव्य स्मारक

. स्मारक का वर्तमान स्वरुप

नोहर रेलवे स्टेशन से दक्षिण दिशा में बाजार की ओर जाने वाले मुख्य मार्ग पर बना यह स्मारक गत वर्ष तक नोहर की शान था। इसका भव्य रूप देखते ही बनता था। वह भव्य रूप तो नहीं रहा मगर आज भी बाहर से आने वाले विद्वजन और कला-प्रेमी यहां एक महान कवि का स्मारक देखकर कस्बे के साहित्यिक लगाव पर भाव-विभोर हुए बिना नहीं रहते। गौरतलब यह भी है कि राजस्थान भर में नोहर के अलावा शायद ही कोई ऐसा कस्बा हो जहां किसी कवि की स्मृति में बीच शहर कोई भव्य स्मारक बना हो। मगर कैसी विडम्बना है कि नोहर का आमजन इसे टैगोर के स्मारक के रूप में कम और धोळती मूर्ति के रूप में ज्यादा जानता है।
एडवोकेट और नगरपालिका के पूर्व उपाध्यक्ष संतलाल तिवाड़ी को यह स्मारक कब बना यह तो ठीक-ठाक याद नहीं पर उनका मानना है कि करीब बत्तीस बरस पहले जब यहां रणजीतसिंह घटाला उपखंड-अधिकारी थे, तब उनके कार्यकाल में यह स्मारक नगरपालिका ने बनवाया था। उन्होंने स्वीकारा कि एक महान साहित्यकार के स्मारक की अनदेखी के पीछे हम शिक्षितों की उदासीनता ही प्रमुख कारण है तथा नगरपालिका को प्रतिवर्ष इनकी जयंती पर जलसा आयोजित करना चाहिए जिससे नई पीढ़ी को इनके जीवन-दर्शन से प्रेरणा मिल सके। 'नोहर का इतिहास' के सृजक इतिहासकार प्रहलाद दत्त पंडा को स्मारक का इतिहास तो मालूम नहीं पर वे यह चिंता जरूर व्यक्त करते हैं कि टैगोर के साहित्य को कस्बे में गंभीरता से पढ़ने वालों का अभाव रहा है। राजस्थान ललित कला अकादमी से पुरस्कृत चित्रकार महेन्द्रप्रताप शर्मा स्मारक की अनदेखी को नोहर का बड़ा दुर्भाग्य मानते हैं। वे कहते हैं कि स्थानीय रचनाधर्मियों का दायित्त्व बनता है कि विशिष्ट अवसरों पर टैगोर के चिंतन पर गोष्ठियां आयोजित करें। कुछ ऐसे ही विचार नोहर स्थित राजकीय महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. एम.डी. गोरा के हैं।
गौरतलब है कि परलीका गांव के रचनाकारों ने करीब पांच वर्ष पहले टैगोर जयंती के अवसर पर यहां आकर स्थानीय कवियों की एक कवि गोष्ठी जरूर आयोजित करवाई थी मगर वह परम्परा का रूप नहीं ले सकी। सवाल उठता है कि अपने रचनाकर्म के बल पर जिन महापुरूषों ने भारतीय दर्शन को नए आयाम दिए, क्या हम अपने व्यस्त जीवन के कुछ पल उनके लिए नहीं निकाल सकते?
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''बड़ा कवि राष्ट्र का गौरव होता है। किसी राष्ट्र के हिस्से में बहुत कम आते हैं बड़े कवि। टैगोर भारत के हिस्से में आने वाले बहुत बड़े कवि थे। विश्वकवि टैगोर को सन् 1913 में बांगला काव्यकृति 'गीतांजली' पर नोबेल पुरस्कार मिला था। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। साहित्य की नाटक, निबंध, कथा, आदि गद्य विधाओं के साथ-साथ चित्रकला और संगीत पर भी उनका समान अधिकार था। अनुभव व शिल्प के स्तर पर आज भी उनके जोड़ का साहित्यकार दुर्लभ है। मैं नमन करता हूं उस शख्सियत को जिसके मन में पहली बार इस कस्बे में विश्वकवि का स्मारक बनाने का यह विलक्षण विचार आया और तरस आता है ऐसे तथाकथित बौद्धिकों पर जो इतना ही नहीं जानते कि उनके चौराहे पर किस महान आत्मा की प्रतिमा है।''
-टैगोर के बंगला नाटक 'रक्त करबी' के राजस्थानी अनुवाद 'राती कणेर' के लिए वर्ष 2002 में साहित्य अकादेमी-नई दिल्ली से पुरस्कृत साहित्यकार रामस्वरूप किसान
प्रस्तुति - सत्यनारायण सोनी
9602412124

सोमवार, 4 मई 2009

आं बच्चां रै सीस पर, बैठ्यो है संसार

एक कानी सकूलां में प्रवेश उच्छब मनायो जावे तो दूजी कानी नान्हा नान्हा पढ़ेसरयां नै घर चलावन री चिंता खाया जावे है. परलीका रो रामावतार स्वामी भी नोंवी जमात रो पढ़ेशरी है



रामस्वरूप किसान रा दूहो चेतै आवै-

लुळ-लुळ जावै टांगड़ी, बो'ळो चकियौ भार।
आं बच्चां रै सीस पर, बैठ्यो है संसार।।


प्रस्तुति- अजय कुमार सोनी
संपादक जनवाणी
समुठ- 9460102521

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