गुरुवार, 14 मई 2009

आपणा बडेरा (3)- प्रेमदास स्वामी

आपणा बडेरा
परलीका: प्रेमदास स्वामी

मायतां गी सेवा करसी बो ई सुखी रैसी

78 वर्षीय प्रेमदास स्वामी ने अपनी जिंदगी में न तो कभी अखबार पढ़ा, न रेडियो सुना। टेलीविजन तो आज भी उन्हें देवीय कृपा या मायाजाल-सा लगता है। उनको यह बात हैरान नहीं करती कि टी.वी. पर खबर क्या चल रही है, बल्कि उन्हें तो हैरत है कि जमाना कितना आगे निकल चुका है। पिछले चालीस सालों से लगातार सूत की कताई कर कलात्मक चारपाई, पीढ़े, रास, बोरा, जेवड़ा बनाने वाले इस बुजुर्ग को देखा तो जिज्ञासा हुई कि जमाने को इनकी नजर से देखा जाए। वे बताने लगे-'पैली अर अब में रात-दिन गो फरक आग्यो। जद कोसां उपाळो चालणो पड़तो, अब पांवडो ई धरण गो काम कोनी पड़ै। पाणी गा ई सांसां मिटग्या। दिनां तांईं न्हांवतां कोनी। अब सगळो गाम बीन बण्यो फिरै अर बारामासी गळियां में कादो कोनी सूकै। पै'ली नूंवां गाबा बरसां तक कोनी मिलता आज छोटै-छोटै टाबरां गै एक-एक लादो है। ब्याव में फगत एक जोड़ी धोती-कुड़तै सूं मैं भोत राजी हो। आज एक लादो कपड़ा हरेक आदमी गै होग्या। कारी-कुटका तो रैया ई कोनी। रिपियां सार पैली जाणता ई कोनी, पण अब तो जामतै टाबर नै ई रिपियै गो कोड। बीं बगत मन मांय एक न्यारो चाव-सो होंवतो। अब बा बात ई कोनी रैयी। आधी-आधी रात तांईं गुवाड़ां में कबड्डी खेलता। संपत हो। लड़ाई कोनी होंवती। मैं चाळीस साल तक खूब डांगर-ढोर चराया, सीरी रैयो, रात-दिन कमायो पण थकेलै गो नाम कोनी जाण्यो। अब तो पूछै जिको ई जेब सूं गोळी काढ गे होठ ढीला छोड़द्यै कै आंसग कोनी। तावळी-सी रीस ई कोनी आंवती। आजकाल फोन मांखर ई बात करतां सुणां जद लागै जाणै ईं रै माखर ई सामलै रै बटको बोडसी।
ढेरिया घुमाते हुए वे कहते हैं- 'म्हारै जमाने में ढेरियै गी चोखी चलबल ही। लुगाइयां चरखो अर माणस ढेरियो कातता। ढेरियै बिना मनै आवड़ै कोनी। बिलम गो बिलम अर काम गो काम। हाड चालै इतणै आदमी नै काम करणो चईयै। अब तो माचा अर पीढा फगत छोरियां नै दायजै में देवण खातर बणगे द्यूं। जमानो प्लास्टिक गो आग्यो। आपणी चीज्यां नै ओपरी चीज्यां खावण लागगी। बोरा तो गमईग्या। मेळै में गिंवारियै गी कुण सुणै। अब ढेरै गी बा तार कोनी रैयी।' वे बात का रुख मोड़ते हैं- 'खळा काढणा भोत दोरो काम हो। म्हीनै तांई पून कोनी चालती तो लियां ई बैठ्या रैंवता। ऊंटां पर नाज ढोणो दो'रो हो। आज मसीनां गै कारण खेती अर गाम-गमतरा करणां सोखा होग्या। पण...' ऐसा कहते-कहते प्रेमदास मानो दूर कहीं खो गए और चेहरे पर चिंता के भाव छा गए। बोले-'आदमी जमाने गै सागै कीं बेसी बदळग्यो। भाई-भाई खातर ज्यान देंवतो, पण आज हाथ-हाथ नै खावै। संपत अर प्रेम भाव तो जाबक ई कम होग्यो। ऊंट पर बोरो घाल चीणा बेचण जांवता, च्यार रिपिया मण गो भाव हो। संतोष हो। अब टराली भर-भर बेचै, पण सबर कोनी। कम मैणत में बखार भर जावै आ तो ठीक है, पण पाणी गी भांत रिपियो खर्च करद्यै, बीं गी कीमत कोनी मानै। आ बात आछी कोनी। आजकाल आळां खातर मैं कैवूं कै बै हराम गी खाण गी नीत ना राखै, मैणत, लगन अर प्रेम भाव सूं आपरो हीलो करै। मायतां गी बेकदरी भोत होगी। मायतां गी सेवा करसी बो ई सुखी रैसी।'
प्रस्तुति- विनोद स्वामी
समुठ- 9829176391

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