जय क्रिशन राय तुषार की ग़ज़ल
वो अक्सर फूल परियो की तरह सजकर निकलती है
मगर आँखों में एक दरिया का जल भरकर निकलती है
कंटीली झाडिया उग आती है लोगो के चेहरे पर
खुदा जाने वो केसे भीड़ से बचकर निकलती है
बदलकर शकल हर सूरत उसे रावन ही मिलते है
कोई सीता जब लक्ष्मण रेखा से बहार निकलती है
सफर में तुम उसे ख्मोस गुडिया मत समझ लेना
ज़माने को झुकी नजरो से वो पढ़कर निकलती है
ज़माने भर से उसे इजत की उम्मीद क्या होगी
ख़ुद अपने घर से वो लड़की बहुत डरकर निकलती है
जो बचपन में घरो की जद हिरन सी लाँघ आती थी
वो घर से पूछकर हर रोज दफ्तर निकलती है
ख़ुद जिसकी कोख में इश्वर भी पलकर जन्म लेता है
वाही लड़की ख़ुद अपनी कोख में मरकर निकलती है
छुपा लेती है सुब आँचल में रंजो गम के अफसाने
कोई भी रंग हो मौसम का वो hanskar निकलती है
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