क्रांतिकारी कवि शंकरदान सामौर (जयंती विशेष)
'सगळां रा सिरमौड़, ओळखीजै ठौड़-ठौड़' विरुद से विख्यात कवि शंकरदान सामौर को कौन नहीं जानता। वे आधुनिक युग के बड़े और क्रान्तिकारी कवि थे। आपका जन्म २२ नवम्बर १८२४ को चुरू जिले की सुजानगढ़ तहसील के बोबासर गांव में हुआ। आप राजस्थानी के पहले ऐसे राष्ट्रीय कवि हैं, जिनका काव्य देशभक्ति के भावों से ओतप्रोत है। आपके काव्य में अंग्रेजों के विरोध में लड़ने वालों के लिए सम्मान का सुर बहुत ऊंचा है। इस क्रांतिकारी कवि की जोश भरी वाणी ने फिरंगियों को झकझोर कर रख दिया था। ये अपने जीवन काल में इतने विख्यात हुए कि उनके डिंगल गीतों को लोगों ने लोकगीतों की तरह अपनाया। उनके गीत देशभक्तों के सच्चे मित्र हैं तो वहीं देश-द्रोहियों और दुश्मनों पर बंदूक की गोली की तरह वार करते हैं।
'संकरियै सामौर रा, गोळी हंदा गीत।
मिंत'ज साचा मुलक रा, रिपुवां उळटी रीत।।'
ऐसे क्रांतिकारी कवि की बहुत सी रचनाएं आज भी नौजवानों में जोश भरने का काम करती हैं। 'सगती सुजस', 'वगत वायरो', 'देस-दरपण' और 'साकेत सतक' आपकी प्रसिठ्ठ रचनाएं हैं।
आचरणवान कवि होने के कारण वे नमन करने योग्य तो थे ही और सत्य कहने की हिम्मत के कारण पूजनीय भी थे। अन्य कवियों की तरह उन्होंने राजाओं का महिमागान नहीं किया। अंग्रेजों का साथ देने वाले राजाओं को उन्होंने खरी-खरी सुनाई। बीकानेर महाराजा को तो फटकार लगाते हुए उन्होंने यहां तक कह डाला कि-
'डफ राजा डफ मुसद्दी, डफ ही देस दिवांण।
डफ ही डफ भेळा हुया, (जद) बाज्यो डफ बीकांण।।'
कविरूप में सामौर ने देश पर आए अंग्रेजी संकट से समाज को सावचेत किया, तो युग-चारण के रूप में इस संकट से समाज का ख्याल रखने में भी पीछे नहीं रहे। जब जरूरत पड़ी तब उन्होंने तागा, धागा, तेलिया और धरणा जैसे सत्याग्रह भी किए। शंकरदान सामौर सामन्ती व्यवस्था की अनीति के खिलाफ भी तीन बार धरने में शामिल हुए। क्योंकि अपनी मौत से नहीं डरने वाला यह जनकवि अनीति का हर स्तर पर विरोध करने को ही जीवन का धर्म मानता था-
'मरस्यां तो मोटै मतै, सो जग कैसी सपूत।
जीस्यां तो देस्यां जरू, जुलम्यां रै सिर जूत।।'
आपने संघर्ष के लिए कविता को हथियार बनाया, लोगों में गुलामी से जूझने का सामर्थ्य भरा। सामौर ने देश की कविता को नया अर्थ दिया, नए विचार दिए। वे गौरी सत्ता के विद्रोही और विप्लवी कवि थे। लोगों ने उनको 'सन् सत्तावन रा कवि' कहकर सम्मान दिया। उनकी कविता में अंग्रेजों के खिलाफ राजस्थानी जन के मन का रोष विस्फोट के रूप में प्रकट हुआ। कवि का यह मानना था कि आजादी की इस लड़ाई का अवसर चूक गए तो फिर यह अवसर मिलना बड़ा मुश्किल है-
'आयो अवसर आज प्रजा पख पूरण पाळण।
आयौ अवसर आज गरब गोरां रौ गाळण।'
कवि का यह मानना है कि आजादी सबसे बड़ी नियामत है और उसे बचाए रखना हर नागरिक का कर्त्तव्य। वे अंग्रेजों की नीति को समझ गए थे और इसी कारण उस नीति से देश को बचाने के लिए उन्होंने एकजुट संघर्ष की आवश्यकता पर बल दिया। सूर्यमल्ल मिश्रण और शंकरदान सामौर एक ही समय में जन्म लेने वाले और जीने वाले कवि थे। दोनों ने ही राष्ट्रीयता की भावना को अपनी कविता का आधार बनाया। अंग्रेजों के अत्याचार की नीति का विरोध कर शंकरदान सामौर ने ऊंचे सुर में देश की एकता, जातियों की एकता और धर्मों की एकता की आवाज बुलंद की। संकट काल में सभी तरह के भेदों को दूर करने की जरूरत बताते हुए कवि राजाओं और की बजाय लोक को संघर्ष का आह्वान करता है-
'धरा हिंदवाण री दाब रह्या दगै सूं, प्रगट में लड़्यां ही पार पड़सी।
संकट में एक हुय भेद मेटो सकल, लोक जद जोस सूं जबर लड़सी।।
मिळ मुसळमान रजपूत ओ मरेठा, जाट सिख पंथ छंड जबर जुड़सी।
दौड़सी देस रा दबियोड़ा दाकल कर, मुलक रा मीठा ठग तुरत मुड़सी।।'
उनकी खारी लेकिन खरी आवाज देश के दबे हुए लोगों को ऊपर उठाने के लिए थी। कवि किसान को भी इस युद में साथ लेता है। किसानों का ये साथ उत्पादन का है। आजादी की लड़ाई में किसानों एवं काम करने वाले मजदूरों को साथ लेने का क्रान्ति संदेश इससे पहले राजस्थानी साहित्य में कहीं दिखाई नहीं देता। जैसा कि कवि ने कहा है-
'नवो नित धान करसाण निपजावसी,
तो पावसी फतै हिंदवाण पक्की।।'
कवि यह जान गया था कि सब लोगों के संगठित होने से ही देश को आजाद करवाया जा सकता है। तांत्या टोपे, झांसी की रानी, आउवा के ठाकुर खुशालसिंह और भरतपुर के जाट राजा तो उनकी कविता के विषय बने ही पर उनके साथ सामाजिक चेतना जगाने वाले भाव प्रकट करने में भी उनकी कलम पीछे नहीं रही।
भरतपुर राजा की प्रशंसा में उनका गीत आज भी लोक प्रचलित है-
'गोरा हटजा भरतपुर गढ़ बांको
नहं चलैला किले माथै बस थांको।
मत जाणीजै लड़ै रै छोरो जाटां को
औ तो कंवर लड़ै रै दसरथ जांको।।'
देश की भूख मिटाने वाले किसान और रक्षा करने वाले वीर सैनिक के सम्मान में वह कहता है-
'धिन झंपड़ियां रा धणी, भुज थां भारत भार।
हो थे ही इण मुलक रा, सांचकला सिणगार।।'
इस तरह आजादी की अलख जगाने वाले इस कवि ने अपना सारा जीवन लोगों को क्रांति-संदेश देने में लगाया। अपनी कविताओं के माध्यम से लोगों को अंग्रेजों की स्वार्थ भरी, कुटिल, लूट-खसोट जैसी चालों से सावचेत किया। इस कवि की कविता का केन्द्र कोई गढ़ या गढ़पति नहीं रहा, वह तो अपनी कविता में शोषितों की तरफदारी करता रहा। इनकी रचनाएं आमजन की पीड़ा के दस्तावेज हैं। कवि सामौर ने अपनी इन रचनाओं के माध्यम से देश की दुर्दशा को प्रकट कर अपने कविधर्म को निभाया। १० अप्रैल १८७८ ईस्वी को इस संघर्षशील कवि का देहांत हो गया, मगर उनकी रचनाओं के बल पर उनका यश हमेशा जीवित रहेगा।
प्रस्तुति- अजय कुमार सोनी
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